
सुबह जो मुझे जोश से लबरेज़ देखते हैं,
वो ही मुझे शाम को खामोश देखते हैं..
एक ही दिन में कितने रंग मैं दिखला देता हूं,
जीवन कैसे जीते है ये सिखला देता हूँ…
सुबह जो मुझे जोश से लबरेज़ देखते हैं,
वो ही मुझे शाम को खामोश देखते हैं..
एक ही दिन में कितने रंग मैं दिखला देता हूं,
जीवन कैसे जीते है ये सिखला देता हूँ…
सोचता हूँ सब लिख दू,
फिर छोड़ देता हूँ..
बहुतों ने है जितना लिखा,
मैं उतना छोड़ देता हूँ,
उन्हें भी दर्द लिखने का,
जरा महसूस तो हो ले,
मैं कुछ अहसास उन लोगो,
के लिए छोड़ देता हूँ…
याद है तुम्हें,
तुमने कहा था,
की मैं नासमझ हूँ,
कितनी सच थी ना तुम..
देखो!
मैं आज भी समझ नही पाया,
‘खुद’ को..
सच ..
नासमझ हूँ मैं…
इस धरनी के बृहद परिधि से,
दूर गगन के अनंत क्षितिज तक,
कौन सा कोना..?
मुक्त भाव से सब कुछ मेरा,
मैं सबका हूँ,कैसा कोना,
कौन सा कोना..?
बस सब मन की अभिलाषा है,
स्वयं बनाई परिभाषा है,
फिर काहे को, कैसा रोना,
खुला आसमां,
क्षितिज समंदर,
वृक्ष तले ही अपना कोना…
धीरे-धीरे उसे कठपुतली बनाया गया,
वो जंगल का शेर था,
उसे सर्कस के काबिल बनाया गया,
बंदर हो ,भालू हो, चाहे हो मछली,
पेड़ पे चढ़ना सिखाया गया,
बरसों बरस तक पढ़ाया गया,
शीशें में उनको उतारा गया,
होना तो यूँ था,की खुद में उतरते,
खुदी को समझते,नई दुनियां रचते,
मगर उनको बाबू बनाया गया,
बरसों बरस तक पढ़ाया गया,
शासन के हाथों नचाया गया,
कठपुतली ऐसे बनाया गया।
सब कुछ लिखा नही जा सकता,
असहायता की भाषा मौन होती है..
बहुत से अहसास शब्दों से परे है,
चाहे वो नितांत सुख की अनुभूति हो,
निःस्वार्थ प्रेम हो,
या किसी अपने का चले जाना,
कलम हमेशा असहाय ही रही,
दुख बांटा नही जा सकता,
यह एक नितांत व्यक्तिगत विषय है।
प्रेम करना और बोलना,
जरूरी है क्या,
जब लोगो ने #प्रेम को,
बोलना शुरू किया,
प्रेम फीका होता चला गया,
वो क्या #प्रेम ,
जिसे जताना पड़े,
करता हूँ मैं तुमसे ,
बताना पड़े,
प्रेम तो बस चेहरे पे,
आंखों में , मुसकुराहट में,
व्यवहार में दिख ही जाता हैं..
प्रेम को दर्शाने की जरूरत नही पड़ती…
हमको पता होता है कि,
कौन हमसे #प्रेम करता है,
एक एहसास के सिवा,
और क्या है #प्रेम
अब चाह नही अपने कोने की,
कुछ पाने की,कुछ खोने की,
मोह पाश सब टूट चुका अब,
दुनियां पीछे छूट चुका अब,
अब अपना कोना,
अपने अंदरजब से मन ये हुआ कलंदर…
अब चाह नही अपने कोने की,
कुछ पाने की,
कुछ खोने की।
कैसे खुश होंगे तुम,
इंसान जो हो..
तुम्हें तो आदत है ना,
जो नही है वो मांगने की,
जो है उसमें तुम कब खुश हुए,
जो मिलता है वो तुम्हें चाहिए नही,
जो मिला नही उसके लिए तुम ,
जान लगा दोगे..
धन्य हो तुम,
हे मानव!
पहले मैं सुन लेता था आंखों को,
अब आंखों ने बातें करना छोड़ दिया…
लड़ती थी, शरमाती थी झुक जाती थी,
अब आंखों ने झुकना लजाना छोड़ दिया।
जिंदगी ऐसी भी होती है,
वैसी भी होती है,
जितनें लोग
जितनें पल
जितनी जगहें,
जितनी सोच,
जितना नज़रिया
जितने सपनें,
जितनी सफलता,
जितनी हार,
जितनी नफरतें,
जितना प्यार,
जितनी गरीबी
जितना अत्याचार,
जितनी अव्यवस्था,
जितनी सरकार,
ये जितने , जितने है
जिंदगी उस हर
जगह है….
उतने रंग है जिंदगी के….
सब जी लो,
बिना शिकवा
बिना शिकायत..
हम कुछ भी नहीं,
जो हैं, जैसे हैं, जहाँ हैं,
सबकी वजह
वह एक शख्स हैं,
जिसे हम पापा कहते हैं,
जिसने हमे बनाने में
खुद के सपने
इच्छाये,
ऐसो आराम,
सब एक तरफ
रख दिए।
शब्दों की कमी पड़ जाती है
जब मैं कुछ लिखना, बोलना चाहता हूँ,
बस यही कहकर विराम देता हूँ…
हर शहर में वो एक कोना होता है जो बिल्कुल शांत,निर्जन और एडवेंचरस होता है, ऐसे कोने ढूंढना अच्छा लगता है मुझे।
करनाल में ऐसे कई कोने है,ये एक ऐसा शहर है जिसे मैंने पैदल और सायकिल से एक्सप्लोर किया है।
ऐसे ही किसी जगह पे बैठा लिख रहा हूँ, पीछे की तरफ नहर है जो अभी सूखी हैं, बाई तरफ रेलवे का पुल जो नहर को क्रॉस करते हुए किसी और दुनिया की तरफ बढ़ जाता है। दाई तरफ़ नहर जा रही किसी अपने के तलाश में सुदूर, समानांतर में एक छोटी सड़क ,सड़क के बगल में खेत और असीम शांति।
20 किलोमीटर की साइक्लिंग के बाद यहां बैठकर इसे खुले वातारण को मैं अपने अंदर उतार चुका हूँ या कहो मैं विलीन हो गया हूँ इसमे।
शांति की भी अपनी आवाज होती है, बिना किसी आवाज के।चिड़ियो की बोली, पेडों के पत्तों का आपस मे टकराकर तड़तड़ाना, हवा की सन-सन ये सब मिलकर कुदरत का संगीत बनाते है ।
शुभप्रभात💐
क्या उम्मीदें थी उसे ज़िंदगी से?
क्या प्यास थी?
क्या नही था उसके पास?
रंग,रूप,सेहत,दौलत…शख्शियत
ये कौन सी टीस है,
जो आत्महत्या तक ले जाती है?
वो कौन सी वजह है,
कितनी कीमती है,
की जिसके लिए जान दी जा सके..?
स्तब्ध… प्रश्नसूचक वाक्यों से घिर गया हूँ मैं सुशांत…
मिला तुम्हें जिसकी तलाश में तुमने,
लोक बदल दिए।